जीवन में व्याप्त गीत और अगीत तत्वों को यानी अभिव्यक्त और अनभिव्यक्त पक्षों को रेखांकित करते हुए हमारे समय के सबसे देदीप्यमान कवि रामधारी सिंह दिनकर ने एक गीत लिखा है, जो इस अक्षर-यज्ञ की वेदी बन सकता है :
गीत अगीत कौन सुंदर है?
गाकर गीत विरह की तटिनी
बेगवती बहती जाती है
दिल हलका कर लेने को
उपलों से कुछ कहती जाती है
तट पर एक गुलाब सोचता
'देते स्वर यदि मुझे विधाता
अपने पतझर के सपनों का
मैं भी जग को गीत सुनाता'
गा-गाकर बह रही निर्झरी
पाटल मूक खड़ा तट पर है।
गीत अगीत कौन सुंदर है?
बैठा शुक उस घनी डाल पर
जो खोंते पर छाया देती
पंख फुला नीचे खोंते में
शुकी बैठ अंडे है सेती
गाता शुक जब किरण वसंती
छूती अंग पर्ण से छनकर
किंतु शुकी के गीत उमड़कर
रह जाते सनेह में सनकर
गूँज रहा शुक का स्वर वन में
फूला मग्न शुकी का पर है।
गीत अगीत कौन सुंदर है?
दो प्रेमी हैं यहाँ, एक जब
बड़े साँझ आल्हा गाता है
पहला स्वर उसकी राधा को
घर से यहाँ खींच लाता है
चोरी-चोरी खड़ी नीम की
छाया में छिपकर सुनती है
'हुई न क्यों मैं कड़ी गीत की
विधना' यों मन में गुनती है
वह गाता, पर किसी वेग से
फूल रहा इसका अंतर है।
गीत अगीत कौन सुंदर है?
इस कविता में जीवन के व्यक्त और अव्यक्त सौंदर्य का बड़ा मनोरम चित्र कुछ प्राकृतिक प्रतीकों के माध्यम से खींचा गया है। पहला प्रतीक वेगवती नदी और उसके तट पर खड़े गुलाब का है। 'गा-गाकर बह रही निर्झरी' को देखकर उसके तट पर खड़ा मूक पाटल सोचता है - देते स्वर यदि मुझे विधाता / अपने पतझर के सपनों का / मैं भी जग को गीत सुनाता'। दूसरा चित्र घनी डाल पर बैठे शुक-शुकी का है। शुक डाल पर बैठा अपने घोंसले की रक्षा कर रहा है, जबकि शुकी घोंसले में पंख फुलाकर बैठी अपने अंडों को से रही है। वासंती किरणों के स्पर्श से पुलकित होकर शुक गाने लगता है। शुकी स्वयं गा तो नहीं पाती है, मगर शुक के गीत में मगन होकर उसके पंखों का घेरा और बड़ा हो जाता है। तीसरा और अंतिम चित्र सायंकाल आल्हा गा रहे प्रेमी और उसके स्वर के आकर्षण में खिंचकर आई प्रेमिका का है, जो नीम के पेड़ की ओट में छिपकर उसे सुनती है और सोचती है कि विधाता ने मुझे यदि इस गीत की पंक्ति बना दी होती तो मैं भी अपने प्रेमी के अधरों पर विराजती! यहाँ भी एक ओर प्रेमी गाता है और दूसरी ओर प्रेमिका का मर्मस्थल वेग से धड़कने लगता है। पहला प्रतीक जड़-जंगम, दूसरा प्रतीक पिता-माता और तीसरा प्रतीक प्रेमी-प्रेमिका के बीच मधुर अंतर्संबंध का है। इसे यदि और आगे बढ़ाया जाय तो एक प्रतीक कवि और उसके श्रोता को लेकर भी बन सकता है, क्योंकि श्रेष्ठ कवि जब अपनी मनोरम कविता सुनाता है, तब उसके भाव श्रोता में अंतरित होते ही उसका अंतःकरण आंदोलित हो उठता है और वह भी पाटल की तरह सोचने लगता है कि काश, ये पंक्तियाँ मैंने लिखी होतीं। थोड़ा-बहुत कवित्व हर संवेदनशील व्यक्ति में होता है। फर्क यही है कि वह अपने भावों को अभिव्यक्त नहीं कर पाता है, जबकि सुकवि अपनी प्रतिभा, अपनी साधना से यह कार्य बखूबी कर लेता है।
पिछली सदी में हिंदी का समृद्ध काव्य-मंच उन तमाम सारस्वत रातों और संध्याओं का साक्षी रहा है, जब मंच से सिद्ध और प्रसिद्ध कवि काव्यपाठ करते थे और काव्यप्रेमी श्रोता रात-रात भर शब्द-स्वर की उस दुर्लभ काव्यधारा में बेसुध होकर अवगाहन करते रहते थे। यह क्रम 'सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक' चलता था। यह इसलिए कि कविता दुनिया के हर कोने में 'वाचिक परंपरा' की ही वारिस रही है। भारत में तो इसकी हजारों वर्ष लंबी मानव-श्रृंखला है। यहाँ तक कि भारत के जिस एकमात्र कवि रवींद्रनाथ टैगोर को नोबेल प्राइज मिला है, वह इसी परंपरा के वारिस होने के कारण। सन् 1913 में 'गीतांजलि' को नोबेल पुरस्कार देते समय भी कविता की गीतात्मक काव्यधारा को पुनर्परिभाषित किया गया था, क्योंकि यह पुरस्कार भारत के उस 'संगीतकार, चित्रकार कवि' को दिया जाना था, जो नई कविता के यूरोपीय दायरे से बाहर था, लेकिन एशिया महाद्वीप में सर्वाधिक प्रभावशाली था और उसे पुरस्कार देने का मतलब यूरोपीय चौहद्दी तक सीमित नोबेल प्राइज का एशिया महाद्वीप में पाँव बढ़ाना था।
संयोगवश, 1913 के बाद कविता को पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता पूरे 103 वर्षों के बाद आज यानी 2016 में पडी, जब साहित्य का नोबेल प्राइज अमेरिका के 'साहित्यिक कलाकार' बॉब डिलन को दिया गया, जो हमारे असमिया कवि-गायक भूपेन हजारिका की परंपरा का कवि है। भूपेनदा की भाँति ही वह सामयिक विषयों पर गत साठ के दशक से गीत लिखता रहा है और उसे संगीतबद्ध कर सबको सुनाता भी रहा है। पिछली सदी के वरेण्य कवि शैलेंद्र के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं - 'काम नए नित गीत बनाना / गीत बनाके जहाँ को सुनाना / कोई ना मिले तो अकेले में गाना।' कुछ वर्ष पहले तक बॉब डिलन के काव्य को जब कोई इंग्लिश कविता के पाठ्यक्रम में शुमार करना चाहता था, तो समीक्षक लोग उसे कवि मानने से ही इनकार कर देते थे। साहित्य का यह नोबेल पुरस्कार उसे कवि के रूप में नहीं, बल्कि 'साहित्यिक कलाकार' के रूप में दिया गया है यानी पिछली सदी में कविता ने जो नए लोकप्रिय संगीत के साथ मिलकर अपने समय को प्रभावित करने का बीड़ा उठाया है, उसी के फलस्वरूप नोबेल समिति को साहित्य के दायरे का विस्तार करना पड़ा है। बॉब डिलन को 'हमारे समय के अंग्रेजी साहित्य का शेक्सपियर' इसलिए कहा जा रहा है कि शेक्सपियर के नाटकों की भाँति ही वह भी अपना काव्य सुनने-सुनाने के लिए लिखता है, न कि पढ़ने के लिए।
हिंदी जगत में पिछली आधी सदी में, इस तरह के कवि को वर्तमान समालोचकों का आभिजात्य संस्कार स्वीकार नहीं करता रहा है, वरना नेपाली, बच्चन, नीरज, भारत भूषण, शंभुनाथ सिंह, सोम ठाकुर जैसे समर्थ कवि पाठ्यक्रमों की शोभा बढ़ा रहे होते। हिंदी आलोचकों का यह रवैया जनसंस्कृति के विरुद्ध है। दुर्भाग्यवश, कविता के समीक्षकों ने समकालीन परिवर्तनों की ओर पीठ कर अपना-अपना 'ठाकुर का कुआँ' खोद डाला है, जिसका पानी विशेष चहेते लोगों तक ही सुरक्षित है। लेकिन समय के बढ़ते कदम अब कविता को किताबों के पन्नों की परदादारी से विमुक्त करते हुए उसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की दुनिया में खींच ले जाने लगे हैं। ऐसे में, हिंदी कविता के समीक्षकों की प्राध्यापकीय जमींदारी प्रथा बहुत दिनों तक आज की जनप्रिय सृजनशील कविता की उपेक्षा नहीं कर पाएगी और ऐसा लग रहा है कि बहुत जल्द आयातित समीक्षा-शास्त्र का तिलस्म टूटनेवाला है। यह जरूरी भी है, क्योंकि हिंदी ही एकमात्र भाषा है, जिसमें रचनाकार से बड़ा समीक्षक हो गया है। यह एक ऐसा गाँव है, जहाँ गेहूँ उपजानेवाले से गेहूँ पीसनेवाले का कद बड़ा मान लिया गया है। इसका बीज दिनकर के समय में ही अज्ञेय ने अमेरिका से लाकर बोया था। उनकी आत्मा को यह देखकर खुशी होगी कि वह मुट्ठी भर बीज आज बेहया का जंगल बनकर दिग-दिगंत में छा गया है। साहित्य में नोबेल पुरस्कार पाने के लिए उन्होंने भी भरसक प्रयास किया था, मगर केवल प्रयोग को या क्रांति की नकल को पुरस्कार नहीं मिलता है, उसकी नाभि-नाल जमीन से जुड़ी भी होनी चाहिए। पिछली आधी सदी में जिस नकली कविता को हिंदी की मुख्य काव्यधारा कहकर दो पीढ़ियों को बरगलाया गया, वह अंततः अमरबेल ही सिद्ध हुई है। पाठ्यक्रमों से लेकर अकादमियों तक ने उसी अमरबेल को प्राण-पन से सींचा, मगर आम आदमी ने उसके बजाय वाचिक परंपरा से प्राप्त कविता को ही अपनाया। अब या तो विद्यापति-कबीर-सूर-तुलसी से लेकर प्रसाद-निराला-दिनकर-बच्चन को हृदयंगम करनेवाला जन-साधारण गलत है या ब्रजवासियों को ब्रह्मज्ञान देनेवाले ऊधव के वंशज गलत हैं। उन्हें मुँह चुराने और जुगाड़ के बलपर सिक्का चलाने के बजाय गोपियों के इस उपयोगितावादी सवाल का जवाब देना ही होगा - 'कर बिनु कैसे गाय दुहिहैं हमारी ऊधो, पग बिनु कैसे नाचि थिरकि रिझाइहैं?' आखिर वह नकारात्मक, दुरूह और अप्रमेय कविता देश-समाज के किस काम की, जो न प्रेरणा दे सकती है, न आनंद और न स्मरण को पाथेय?
इस सहस्राब्दी के प्रथम वर्ष यानी 2001 में केंद्रीय साहित्य अकादमी ने बहुसंख्यक काव्यप्रेमियों के दबाव में या अचानक कुंडलिनी जागृत हो जाने से कविता की आयातित अवधारणा को ताक पर रखकर पहली बार 'श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन' प्रकाशित किया। पिछले पंद्रह वर्षों से यह काव्यसंग्रह अकादमी का बेस्टसेलर माना जाता है। यह तो केवल पुस्तक है, जो पढ़ने के लिए है। अगर उन कविताओं को यूरोपीय देशों की तरह संगीतबद्ध कर परोसा जाय, तो उसकी प्रसार-संख्या हजारों में नहीं, लाखों में होगी। जिस तरह गीत मानव-जीवन के राग-विराग, दर्शन-चिंतन, सुख-दुःख, हर्ष-आनंद, आँसू-मुस्कान को शब्द और स्वर देता है, वह अप्रतिम है। 'नई कविता' के संस्थापकों में अग्रणी डॉ. जगदीश गुप्त भी यह मानते हैं कि 'लोकगीतों से लेकर सिने गीतों तक भारतीय जनमानस को गीत कहीं इतनी गहराई से जकड़े हुए है कि उसका स्वर कैसा भी हो, वह उसे ग्राह्य हो जाता है।' यदि 'कविता शब्दमय संगीत है और संगीत ध्वनिमय कविता' तो शिक्षा-जगत की राशन की दुकानों से हम गरीबों को अनाज के नाम पर भूसा क्यों बाँटा जा रहा है? यह अशनि-संकेत सन् 1940 के बाद से ही मिलने लगा था, जब नई कविता के कवियों ने गीत की नाव से नदी पार करने के बाद उस नाव से ऐसे मुँह फेर लिया, जैसे दिवंगत प्रियजन को तिलांजलि दे रहे हों। जिन थोड़े-से कवियों ने नई कविता और गीत को साथ लेकर चलने की मशक्कत की, उनमें रामदरश मिश्र प्रणम्य हैं। उनका मानना है कि -'यदि नई कविता गीतकाव्य को नए बोध और नए बिंबों की ओर झुकने के लिए प्रेरित करती है, तो गीत नई कविता को अतिरिक्त बौद्धिकता और शुष्कता से उबारने में समर्थ है। इसीलिए मैंने नई कविता और गीत दोनों को एक-दूसरे से प्रभावित करने की चेष्टा की है।' इसके बावजूद उन्हें 'बौद्धिक कवि' नहीं माना गया और साहित्य अकादमी का पुरस्कार लेने के लिए उन्हें 92 वर्ष की आयु तक इंतजार करना पड़ा और वह पुरस्कार भी नई कविता की पुस्तक पर मिला, जबकि वे अपने समय के श्रेष्ठ गीतकार हैं। वस्तुतः आज तक किसी गीत-संग्रह को साहित्य अकादमी का पुरस्कार न मिलना हिंदी जगत में बुद्धिजीवियों के शनैः-शनैः गणशत्रु की भूमिका में आ जाने का प्रमाण है। गीत विधा के प्रति इस आपराधिक उपेक्षा का थोड़ा-सा संकेत प्रो. सी एल प्रभात ने भी किया है - 'यह बात नहीं है कि गीत के क्षेत्र में अच्छी रचनाएँ हुई ही नहीं, पर समालोचना के फैशनेबल पंडों और काव्य-मूल्यों के स्वयंभू सिपहसालारों ने उन्हें स्थापित नहीं होने दिया, यहाँ तक कि गीत की सुंदरतम उपलब्धियों को भी नजरअंदाज कर दिया गया।'
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि अपनी जड़ से उखड़े समीक्षकों ने अपनी सुविधा के लिए कुछ कवियों की सूची बना ली है, जिसके आगे देखना उनके लिए पाप है। आज के दौर को ही देखें, तो हिंदी में गीत-गजल के अलावा दोहे और छंद भी लिखे जा रहे हैं और श्रेष्ठतर लिखे जा रहे हैं, मगर कविता की समीक्षा से वे सारे अध्याय गायब हैं। छंद की बात भी चलेगी तो उसी प्रेस्क्राइब्ड सूची के कवियों द्वारा छंद में की गई कोशिशों से आगे बात नहीं बढ़ेगी। इस संदर्भ में वाल्मीकीय रामायण का एक प्रसंग याद आता है। लंका कांड में युद्ध समाप्त होने के बाद श्रीराम हनुमान जी से कहते हैं जानकी को अशोकवाटिका से लाने के लिए, जिससे वानर सेना उनके दर्शन कर सके। अपूर्वसुंदरी सीता वानर सैनिकों के बीच आईं। उनके दिव्य रूप को देखकर सभी वानर चकित। वे सभी उनकी आँख-नाक-कान आदि की अपरूपता का वर्णन करते हुए कहने लगे कि सब कुछ है, केवल एक पूँछ नहीं है। वानरों के लिए सुंदरता के मापदंड में पूँछ होना आवश्यक है। मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र को भी भारतीय कविता में यही एक कमी दिखाई पड़ती है। इसलिए उसने अपने सौंदर्यशास्त्र के अनुसार न केवल सीता को गढ़ा है, बल्कि वाल्मीकियों को भी। उसे शंभूनाथ सिंह, वीरेंद्र मिश्र, ठाकुर प्रसाद सिंह, रमानाथ अवस्थी, रामावतार त्यागी, रमेश रंजक, रवींद्र भ्रमर, नईम, उमाकांत मालवीय, श्रीकृष्ण तिवारी आदि तमाम वरेण्य कवि इसलिए नहीं जँचे कि उनके पीछे मार्क्सवादी पूँछ नहीं थी। यह भी मार्क्सवाद के अधकचरे ज्ञान का ही परिणाम है। जरूरत तो इस बात की थी कि हम अपने आचार्यों के काव्यशास्त्र के अनुशीलन के बाद देखते कि उसमें मार्क्सवाद की गुंजाइश कहाँ-कहाँ है। स्वामी विवेकानंद ने भी पश्चिम से वही चीजें लीं, जो हमारे पास नहीं थीं। लेकिन इसे समझने के लिए भी तो विवेकानंद जैसा विवेक चाहिए।
इस प्रसंग में याद आते हैं पं. विद्यानिवास मिश्र, जिन्हें भारतीय शास्त्रों का गहन ज्ञान भी था और पाश्चात्य शास्त्रों से व्यापक परिचय भी। उनके अनुसार गीत 'अनुभव की बेसँभाल बेचैनी, खंड में समग्र को पानेवाली दृष्टि और इस सबको अपने भीतर की लय से जोड़ने की लीला का समाहित रूप है।' उन्होंने गीत के विभिन्न रूपों को एक स्थान पर जुटाने का प्रयास भी किया है:- 'गीत वह है, जो पक्के गाने के रूप में गाया जा सके, जो लोकधुनों की कई मुरकियों की याद एक साथ दिला सके, जो फिल्मी तरानों के झटके दे सके, वह भी है, जो गाया न जा सके, तो खींच के बल पर दूर तक पहुँचाया जा सके, वह भी है जो खेलकूद कवायद और अभियान में सहायक बन सके, वह भी है, जो टेक की तुकों की खूँटियों में कसकर बांधा जा सके और वह भी है जो समाचारपत्रों में छपे तारिकाओं के चित्रों की तरह केवल शीर्षकों से जाना जा सके कि हाँ,यह गीत ही है। अगर कोई सचमुच गीत की परिभाषा इन तमाम प्रकारों से सामान्य लक्षण निकालकर करना चाहे, तो उसे बड़ी मुश्किल होगी।' यह व्यापकता इसलिए है कि गीत मानव की आत्माभिव्यक्ति की आदिवाणी है। संसार की प्रत्येक भाषा की उत्पत्ति संगीतात्मक हुई है और उसमें पहली सहज स्वच्छंद अभिव्यक्ति छोटी-छोटी स्फुट कविताओं या लोकगीतों के माध्यम से हुई है। भारतीय परिवेश में, तो गीत मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक सहचर है। क्या उत्तर, क्या दक्षिण, क्या पूरब, क्या पश्चिम - पूरे देश का लोकजीवन गीतमय है। पर्व-त्यौहार और विभिन्न उत्सवों में तो गीत उपस्थित रहता ही है, खेतों में रोपनी-निराई और आँगन में कुटाई-पिसाई तक में साथ देकर ये गीत न ऊबने देते हैं, न थकने देते हैं।
प्रारंभिक लौकिक गीत-काव्य प्राकृत और उसकी सहोदर भाषाओं में है। 'गाहा सतसइ' (गाथा सप्तशती) इसी प्रकार के मुक्तकों का संग्रह है। 'मेघदूत' संसार का सर्वश्रेष्ठ और सबसे दीर्घकाय गीतकाव्य है। दक्षिण भारतीय काव्यों में भी गीतकाव्य की बड़ी पुरानी परंपरा है और मुझे लगता है कि जिस साँचे में जयदेव ने 'गीतगोविंद' के पदों को ढाला, वह भी दक्षिण की ही भक्तिधारा में ही बहकर उत्तर आई थी। 'गीतगोविंद' के अनुसरण में पहली बार देसिल बयना मैथिली में विद्यापति ने पदों की रचना कर परवर्ती कवि कबीर-सूर-तुलसी-मीरा-रैदास जैसी महान प्रतिभाओं को जनभाषा में पद रचने की प्रेरणा-प्रोत्साहन दिया। छायावादी कवियों ने गीत की संरचना में क्रांतिकारी परिवर्तन किए और निराला ने छंद-विधान में विशेष कौशल दिखाया, क्योंकि वे बंगाल (महिषादल) की धरती से आए थे, जो साहित्य-संगीत-कला के अलावा नवचेतना की भी लीलाभूमि बन चुकी थी तब तक।
यदि कविता को हिमगिरि-शृंखला मान लिया जाए, तो गीत उसका कैलाश शिखर है, जहाँ योगीश्वर शिव का वास है और जहाँ कविता का सर्वांगीण सौंदर्य प्रस्फुटित होता है। प्रारंभ में अंग्रेजी की देखादेखी गीत के कई विभाग किए गए गए। लंबे निबंधात्मक गीतों को प्रगीत नाम दिया गया। संगीत-प्रधान गीतों को गान कहा गया और शब्द-प्रधान गीतों को गीत। फिर 'नई कविता' (अंग्रेजी की न्यू पोयट्री) के अनुसरण में नई कहानी लिखी गई, तब आधुनिक बोध से युक्त गीत 'नवगीत' कहलाए'। कुछ बंधुओं ने 'जनगीत' 'समकालीन गीत' आदि नाम से अपना सिक्का चलाना चाहा, मगर जन-स्वीकृति केवल 'गीत' व 'नवगीत' को ही मिली।
संस्कृत से अपरिचित विद्वान लोग अक्सर 'काव्यं गीतेन हन्यते' कहकर गीत विधा को ही काव्य से खारिज कर देते हैं। उन्हें यदि संस्कृत आती तो जान पाते इसका यह अर्थ है कि काव्य का रस गायन से नष्ट होता है। गायन और गीतपाठ में बहुत अंतर है। जिस गीत का गायन होता है, उसे बंदिश कहा जाता है। पहले कलाविद राजे-महाराजे अपने दरबार में गायकों को रखते थे और उनके वास्ते नई-नई बंदिशें लिखने के लिए कवियों को रखते थे। आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री को भी पहली नौकरी रायगढ़ के महाराजा ने बंदिशें लिखने की ही दी थीं। कुछ दिनों में ही वे वहाँ से भागे और जाकर मुजफ्फरपुर के एक संस्कृत विद्यालय में शरण ली। दरअसल, हमारे आचार्यों ने किसका पाठ कैसे किया जाए, इसका पूरा विधान बनाया हुआ है। वेद मंत्रों को गाकर या किताब में देखकर पढ़ना सख्त मना है, क्योंकि यह किताब की चीज ही नहीं है, यह गुरु-शिष्य परंपरा की चीज है। इसीलिए हजारों वर्षों के बाद भी उसके उच्चारण में कोई दोष नहीं आया है। 'पाणिनीय शिक्षा' में गाते हुए, जल्दी-जल्दी या सिर हिलाकर पढ़नेवाला, लिखित वेद को पढ़नेवाला, बिना अर्थ जाने पढ़नेवाला और बहुत धीमे से पढ़नेवाला अधम पाठक माना गया है :-
गीती शीघ्री शिरःकम्पी तथा लिखितपाठकः।
अनर्थज्ञोsल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः ॥
इस पुस्तक में श्रेष्ठ पाठक के गुणों का भी वर्णन किया गया है :-
माधुर्य-मक्षरव्यक्तिः पदच्छेदस्तु सुस्वरः।
धैर्यं लयसमर्थं च षडेते पाठका गुणः।।
सुनने में अच्छा लगे, वर्णों की स्पष्टता हो, अर्थ के अनुसार पद विभक्त हों, सुर में हों, स्थिरता के साथ हों, लय-युक्त हों। यही आदर्श पाठ का गुण है।
कवि सम्मेलनों में श्रेष्ठ कविजन इसी नीति से काव्यपाठ करते रहे हैं। मुशायरे में यह बात नहीं है। वहाँ शायर शेर की पहली पंक्ति को इतना खींचते हैं, जैसे अजान दे रहे हों। वैसे भी, शायरों का काव्यपाठ नातिया-कलाम की प्रस्तुति से अत्यधिक प्रभावित होता है, जबकि गीत-कवियों का काव्यपाठ सामान्यतः निर्धारित परिधि में ही होता है। उनके पारंपरिक काव्यपाठ में शब्द और स्वर का अद्भुत संतुलन होता है। आधुनिक हिंदी गीत सांस्कृतिक नवजागरण के दौर में अंग्रेजी लिरिक के अनुसरण में अग्रसर हुआ। यूनान में गिटार-नुमा 'लायर' वाद्ययंत्र पर गाए जानेवाले काव्य को लिरिक कहा गया। हिंदी में वह प्रत्यक्ष संगीतात्मक आधार नहीं रहा, मगर शब्दों में अंतर्निहित ध्वनि-संगीत ने गीत को समाज से जोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई। वैष्णव कवियों के पदों को समाज के बीच लाने में संगीतज्ञ भक्तों की भूमिका उल्लेखनीय रही है। विद्यापति के पदों को संगीतबद्ध करने के लिए मिथिला-नरेश ने अपने दरबारी संगीतकारों को निर्देश दिया था। नवाबों ने वही प्रयत्न गजल की गायकी के लिए किया, जिसका लाभ आज भी गजल विधा को मिल रहा है। इस समय के सुगम संगीत में अधिकतर गायक या तो भजन गाते हैं या गजल पर आ जाते हैं, क्योंकि इन दोनों का रास्ता पहले से बना हुआ है। छायावाद के बाद आनेवाले साहित्यिक गीतों को संगीत-बद्ध करने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया, जिससे वह समाज में संगीत के माध्यम से नहीं जा सका। यह तो कहिए, गीतकारों के शब्दों का वह जादू था कि लोग केवल काव्यपाठ सुनने के लिए कई-कई मील से आते थे और अपने प्रिय कवियों को सुनने के लिए रात-रात भर इंतजार करते थे। काव्यमंचों को ग्लैमर नेपाली, बच्चन, रंग, नीरज, भारत भूषण, सोम ठाकुर जैसे गीतकारों ने दिया, लेकिन उसकी मुनाफा-वसूली हास्य कवि-कलाकारों ने की।
मूल बात यह है कि यदि इन अर्थवान नए गीतों को संगीतबद्ध कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के हवाले किया जाय, तो फिल्मी गीतों के उत्तरोत्तर बढ़ रहे प्रदूषण से थोड़ी मुक्ति मिल सकती है। लेकिन, दृष्टिहीनता के कारण, आज साहित्यिक गीतों को संगीत या अन्य ललित कलाओं से जोड़ने का कोई प्रयास नहीं हो रहा है, न सरकारी अकादमियों की ओर से, न स्वैच्छिक संस्थाओं की ओर से। अधिक से अधिक यही हुआ है कि विभिन्न गीतकारों ने अपने प्रयास से कुछ सामूहिक गीत संग्रह निकाल दिए हैं। लेकिन, इससे काम नहीं चलने का। कालजयी कविता को सही प्रकार से केंद्र में स्थापित करने के लिए अनेक मोर्चों पर बड़े पैमाने पर काम करने होंगे, वह भी निष्काम भाव से। तभी कीचड़ में फँसी कविता की गाड़ी को बाहर निकाला जा सकता है।
हमें महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के क्रांतदर्शी कुलपति श्रद्धेय गिरीश्वर मिश्र जी के प्रति हृदय से कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने इस ओर ध्यान दिया और गीत-कविता को पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिए विश्वविद्यालय की वेब-पत्रिका 'हिंदी समय' का गीत विशेषांक निकालने का संकल्प लिया और उसे कार्यान्वित करने का भार मुझे सौंपा। जो महानुभाव यह मानकर चल रहे हैं कि आज हिंदी में गीत नहीं लिखे जा रहे हैं, उन्हें हैरानी होगी कि मेरे अत्यल्प प्रयास पर देश-विदेश के सौ से ज्यादा आधुनिक कवियों ने अपने अद्यतन गीत भेज दिए हैं, जिनमें कुछ अभी भी संपादन की प्रक्रिया में हैं। इस संग्रह की विशेषता है कि इसके तमाम रचनाकार देश-विदेश में साहित्येतर सेवाओं में कार्यरत हैं। उनकी जीविका विज्ञान-प्रौद्योगिकी से जुड़ी है, उन्होंने साहित्य की कोई विधिवत शिक्षा-दीक्षा नहीं ली है, इसके बावजूद वे इतने श्रेष्ठ गीत लिख सके हैं। बल्कि मैं तो यह कहने की धृष्टता करना चाहूँगा कि वे हिंदी के छात्र नहीं रहे, इसीलिए कई दिग्भ्रमों से बच गए। हमने गीत के किसी एक स्वरूप को संग्रह में स्थान देने के बजाय स्वाभाविक रूप से लिखी जा रही सभी प्रकार की गीत-कविताओं को स्थान देने का निश्चय किया, ताकि हिंदी कविता की इंद्रधनुषी छटा पाठकों/विवेचकों के समक्ष आए। प्रारंभ हमने 5 गीत, परिचय और फोटो से किया है, लेकिन इसमें यह व्यवस्था है कि रचनाकार बाद में और गीत अपने खाते में डाल सकें। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि देश-विदेश के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में गीत-कविता के विभिन्न पक्षों पर जो विद्यार्थी शोध करना चाहते हैं,या विद्वान शोध कराना चाहते हैं, उन्हें एक ही जगह समस्त वांछित सामग्री मिल जाएगी। यह एक बुनियादी आवश्यकता है, जिसे यह विश्वविद्यालय पूरी करने जा रहा है। मैं चाहता था कि इन गीतों की विशद व्याख्या भी प्रस्तुत करूँ, जिससे इनके छंद-विधान, बिंब-विधान, प्रतीक-विधान, शब्दों के आतंरिक सौंदर्य आदि से काव्यप्रेमी और शोधार्थी परिचित हों, मगर समयाभाव के कारण अभी यह संभव नहीं हो पाया। बाद में समय मिलने पर मैं यह कार्य अवश्य करूँगा।
इस संग्रह को मूल्यवान, व्यापक और सार्थक बनाने में जिन कवियों ने उदारतापूर्वक सहयोग किया है, उनके प्रति मैं हृदय से कृतज्ञता व्यक्त करना चाहता हूँ। साथ ही, उनसे यह भी निवेदन करना चाहता हूँ कि यह अभी पहला पड़ाव है। हमें बहुत लंबी यात्रा करनी है, बहुत सारे किंतु-परंतुओं की धूप-छाँह झेलनी है, बहुत-सी मंजिलें तय करनी है। इस कड़े संघर्ष के अपने मजे हैं, जो पिछले दरवाजों से घुसनेवालों के नसीब में नहीं है। इस प्रकल्प को पूरा करने में 'हिंदी समय' के सुधी संपादकीय सहयोगी श्री मनोज पांडेय जी ने दिन-रात एक किया। उनको तथा उनके विभागीय सहयोगियों को धन्यवाद। पांडुलिपियों के संपादन में मैंने श्री कृष्ण मोहन लाल की तकनीकी विशेषज्ञता का भरपूर लाभ उठाया। उन्हें मेरा आशीर्वाद। मैं हिंदी विश्वविद्यालय के सभी माननीय प्रोफेसरों के प्रति भी कृतज्ञ हूँ, जिनमें कुछ कर गुजरने की तमन्ना भी है और इरादा भी।
अंत में, मैं पुनः उस महापुरुष को नमन करता हूँ, जो मनोविज्ञान के अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्वान होते हुए भी उच्च शिक्षा के सभी पहलुओं पर निगहबानी करते हैं, जिसमें साहित्य भी है। वे स्वयं तलस्पर्शी विद्वान लेखक हैं। मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनके सान्निध्य में विश्वविद्यालय परिसर में रहने और नियमित प्रातः भ्रमण के दौरान उनसे नए विचारों का प्राणवायु प्राप्त करने का दुर्लभ अवसर मिला। यह संकलन मैं जिज्ञासु छात्र-छात्राओं की भावी पीढ़ियों के नाम सौंपता हूँ, जिनपर हिंदी कविता को सँजोने-सँवारने का विशेष दायित्व है।